एक टुकड़ा धूप का
मेरे आंगन में खिलखिलाता था
कभी चमकता था
और कभी छांव बन जाता था।
हवा गुजरती थी जब मन करे
थिरकती थी मेरे आंगन में पत्तियां
और मेरी सांसों में में खुशबुएं।
बारिश की वह सौंधी महक
जाने कब की बात है
कभी बारिश वरन
मेरा सब कुछ भिगोया करती थी।
जाता हूँ अब भी
कभी पार्क, कभी पहाड़ों में
एक उधार की धूप के लिए
और कुछ ताज़ा झोंको के लिए।
ये सब मेरे सरमाए थे
मेरे अपने थे।
क्या आलम है अब कि
बस मुआवजा बन कर रह गए हैं।
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